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Exclusive: रामलला की पहली मूर्ति टेस्टिंग में अटकी, दूसरी को वक्त कम मिला, फिर कैसे गढ़ दिया दिव्य-भव्य रूप

 सार

Arun Yogiraj Interview - रामलला की मूर्ति पूरी बन जाने के बाद भी किस बात का डर था? जब तस्वीर वायरल हो गई, तब क्या हुआ और प्राण प्रतिष्ठा के बाद मूर्ति अलग क्यों दिखने लगी? एक शिला को भव्य-दिव्य मूर्ति में परिवर्तित करने की इसी यात्रा के बारे में बता रहे हैं मूर्तिकार अरुण योगीराज




विस्तार

जैसे अयोध्या में भव्य प्राण-प्रतिष्ठा के साथ विराजे रामलला की प्रतिमा सदा के लिए इतिहास में दर्ज हो गई है, वैसे ही अरुण योगीराज का नाम उसके मूर्तिकार के रूप में हमेशा के लिए लिखा जा चुका है। इन्हीं अरुण योगीराज से मिलना, उनसे बात करना, मूर्ति निर्माण की उनकी पूरी यात्रा से गुजरना एक बहुत ही दिलचस्प अनुभव रहा। इस बातचीत में उन्होंने कई ऐसी बातें बताईं हैं, जिन्हें इस वीडियो के जरिए आप पहली बार अमर उजाला पर देख रहे हैं।


शिल्प और उसका शिल्पकार। मूर्ति और उसका मूर्तिकार। दोनों के अंतरसंबंधों को समझना हो तो आप अयोध्या में स्थापित रामलला की उस दिव्य प्रतिमा को देखिए और फिर उस मूरत को गढ़ने वाले अरुण योगीराज से मिलिए। आपको शिला के अहिल्या होने की प्रक्रिया समझ में आ जाएगी।


जैसे अयोध्या में भव्य प्राण-प्रतिष्ठा के साथ विराजे रामलला की प्रतिमा सदा के लिए इतिहास में दर्ज हो गई है, वैसे ही अरुण योगीराज का नाम उसके मूर्तिकार के रूप में हमेशा के लिए लिखा जा चुका है। इन्हीं अरुण योगीराज से मिलना, उनसे बात करना, मूर्ति निर्माण की उनकी पूरी यात्रा से गुजरना एक बहुत ही दिलचस्प अनुभव रहा। इस बातचीत में उन्होंने कई ऐसी बातें बताईं हैं, जो पहली बार अमर उजाला पर ही प्रकाशित हो रही हैं

पहले मैसूर से बंगलूरू तक चार घंटे का सड़क का सफर। फिर बंगलूरू से लखनऊ की लंबी फ्लाइट। अमर उजाला के लखनऊ संवाद के लिए जब अरुण योगीराज अपने एक करीबी मित्र और सहयोगी के साथ होटल की लॉबी में पहुंचे, तो हम अमर उजाला की ओर से उनका स्वागत करने के लिए इंतजार में थे। छरहरे, लेकिन गठे हुए बदन के गोरे वर्ण और भूरी चमकती आंखों वाले योगीराज ने मुस्कुराते हुए होटल में प्रवेश किया। गहरे नीले रंग का कुर्ता, सफेद पेन्टनुमा पायजामा और सादी सी कत्थई चप्पल।

हमने ये तो तय कर लिया था कि आते ही उनसे साक्षात्कार के लिए निवेदन करना है, पर ये संशय भी था कि कहीं लंबे सफर की थकान का हवाला देते हुए वे मना ना कर दें। पर योगीराज की सहजता ने दिल जीत लिया। एक तो वो पारंपरिक दक्षिण भारतीय लहजे में इतनी प्यारी अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी बोलते हैं कि सीधे दिल को छू जाए। जैसे ही पूछा- आप थके हुए तो नहीं हैं, क्या हम आपका इंटरव्यू ले सकते हैं अमर उजाला के लिए? वो सहर्ष तैयार हो गए। इतनी आसानी से वो कुर्सी पर मेरे साथ बात करने बैठ गए कि उनके सहयोगी को याद दिलाना पड़ा कि ये इंटरव्यू कैमरे पर हो रहा है और आप लंबे सफर से आए हैं, मुंह तो धो लीजिए!! तब जाकर वो मुंह धोकर साक्षात्कार के लिए आए। 

मूर्ति को गढ़ने का आपका अनुभव कैसा रहा?
अरुण योगीराज: भारतवासी पांच सौ साल से इस पल का इंतजार कर रहे थे। हमारा परिवार पांच पीढ़ी यानी कोई तीन सौ वर्षों से यह काम कर रहा था। उन पांच पीढ़ियों में से भगवान ने शायद मुझे उस मूर्तिकार के रूप में चुना, जो उनकी मूर्ति बनाए। मूर्तिकार के रूप में देश के सामने मेरा परिचय हो सका, यह मेरे पूर्वजों का पुण्य है। पूर्वजों की सिखाई हुई कलाओं का मैं अध्ययन करता था। मेरे पूर्वज बहुत कुछ छोड़कर गए हैं। मैं सोचता था कि कभी जिंदगी में बड़ा काम मिलेगा। भगवान की कृपा है कि इतना बड़ा काम मिला।

आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बताइए। आप एमबीए कर रहे थे, वॉलीबॉल के खिलाड़ी भी रहे। फिर मूर्तिकला की तरफ कैसे रूझान हुआ?
अरुण योगीराज: हम लोग पांच पीढ़ी से यह काम कर रहे थे। मेरे दादाजी राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मान प्राप्त हैं। मैसूर पैलेस में उन्होंने बहुत काम किया है। वे राज-मूर्तिकार थे। बचपन से पत्थरों के साथ खेलते-कूदते-सीखते वक्त बीता है। हमारे खून में, डीएनए में मूर्तिकला आई है। हम जहां रहते हैं, वहां कला का बहुत अच्छा माहौल है। इस वजह से भी हमें शिल्प के बारे में जानकारी मिलती रहती थी। रामलला की मूर्ति के रूप में हमें देश को कुछ लौटाने का मौका मिला। मैं बचपन से ही चुपचाप रहता हूं। हर काम अनुशासन से करता हूं। मुझे खेलना पसंद था। 25 साल की उम्र से हर दिन एक घंटा शारीरिक व्यायाम के लिए देता रहता हूं। पढ़ाई और शिल्प शास्त्र, दोनों साथ चलता रहा। 11 साल की उम्र से मैंने मूर्ति बनाने का काम शुरू किया। 2005 तक मैं सिर्फ मार्किंग करके प्रोटोटाइप बनाता था। मैसूर पैलेस के सामने ही हमारी वर्कशॉप है। वहां कई अधूरी मूर्तियां रखी हुई रहती हैं। वहां पर्यटक आते रहते थे। वहां एक विदेशी कलाकार आईं। उन्होंने सौ में से तीन मूर्तियों की तरफ इशारा करके पूछा कि ये किसने बनाई हैं? उन्होंने सिर्फ दादाजी की बनाई मूर्तियां चुनीं। उन्होंने कहा कि इन मूर्तियों में जान है। तब मुझे समझ आया कि मुझे काम का तरीका बदलने की जरूरत है। तब से हर मूर्ति में मैं जीवंतता तलाशने लगा। मूर्तियों में जान हो, यही मेरा उद्देश्य बन गया। मुझे लगता है कि 30 साल से मुझे भगवान ही सिखा रहे थे, इस मौके के लिए मेरी तैयारी करवा रहे थे।

जब पहली बार राम मंदिर ट्रस्ट की तरफ से यह सूचना आई कि आपको मूर्ति बनानी है, तब कैसा महसूस हुआ?
अरुण योगीराज: पिछले साल अप्रैल में मुझे यह जानकारी मिल गई थी कि तीन मूर्तिकार चुने गए हैं, जिनमें मैं सबसे युवा हूं। बहुत खुशी हुई, लेकिन यह सिर्फ 10 मिनट के लिए ही थी। पूरा देश पांच सौ साल से इंतजार में है और हमें कहा गया कि पांच साल की उम्र के लला चाहिए। बहुत रिसर्च किया, लेकिन कुछ हाथ नहीं लगा। ऐसे में पहली बार रामलला की मूर्ति देश के सामने आई तो लगा कि देश उसे कैसे स्वीकार करेगा। सात महीने मैं सोचते-सोचते ठीक से नहीं सो सका। इतना बड़ा मौका मैं नहीं खोना चाहता था। हर दिन चिंतन चलता था

मूर्ति बनाने की यह यात्रा आपने कैसे पूरी की?
अरुण योगीराज: कहानी में हमेशा ट्विस्ट रहता है। यहां भी ऐसा ही हुआ। भगवान कुछ देने से पहले हमेशा परीक्षा लेते हैं। जून में काम शुरू हुआ। अगस्त तक 70 फीसदी काम पूरा हो चुका था। तभी दिल्ली से फोन आया। मैंने सोचा कि शायद और बड़ा काम देने वाले हैं। नृपेंद्र मिश्रा जी ने मुझे बुलाकर कहा कि जिस पत्थर पर आप काम कर रहे हैं, उसकी आठ टेस्टिंग में से एक की रिपोर्ट निगेटिव आई है। तीन महीने की मेहनत खराब हो चुकी थी।

पत्थर की जांच क्यों और कैसे हुई थी?
अरुण योगीराज: भारत सरकार का एक संस्थान है नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ रॉक मैकेनिक्स। राम मंदिर में इस्तेमाल होने वाले सभी पत्थरों को यहीं से सर्टिफाई होना था। वे कम्प्रेशन टेस्ट, केमिकल टेस्ट, रिएक्शन टेस्ट जैसी तकनीकी जांच करते हैं। कुल आठ में से सात जांच में पत्थर पास हो गया, लेकिन एक अटक गया। नृपेंद्र मिश्रा जी ने कहा कि यह भगवान का मामला है। हम देश के लिए उत्तरदायी हैं। हम जोखिम नहीं लेंगे। आपके पास अभी दो-तीन महीने का समय है, क्या आप नई मूर्ति बना सकते हैं? मुझे अच्छा लगा कि मुझसे बात छुपाकर नहीं रखी गई और नया मौका दिया गया। पुरानी मूर्ति सत्तर फीसदी बना लेने के बाद अनुभव हो चुका था। चंपत राय जी मेरे लिए पिता तुल्य हैं। अयोध्या में लौटने के बाद वे पूरा काम छोड़कर मेरे पास आए। उन्होंने कहा कि हिम्मत मत हारो, भगवान सबकी परीक्षा लेते हैं। मैंने तभी उनसे वादा किया कि मैंने जो पहले मूर्ति बनाई थी, उससे भी अच्छी मूर्ति बनाकर दूंगा। भगवान ने मुझसे मूर्ति बनवा ली।

अगले तीन महीने आपने कैसे काम किया?
अरुण योगीराज: मैंने फिर नया पत्थर चुना। वह टेस्टिंग पर गया। रिपोर्ट आ गई और काम तुरंत शुरू कर दिया। शिला मैसूर से आई थी, जो अयोध्या में रखी हुई थी। मैंने हर दिन अपने काम की अवधि को बढ़ा दिया। पहले 11-12 घंटे काम करता था, फिर 16 घंटे काम करने लगा। मेरे सामने दो और कलाकार थे, जो अपनी शिला पर काम कर रहे थे। उन दोनों की शिला टेस्टिंग में पहले ही पास हो चुकी थी। वो लोग मुझसे चार महीने आगे थे। पत्थर को बहुत वक्त देना पड़ता है, फिर पत्थर आपसे बात करने लग जाते हैं। मैं युवा था तो मैंने सोचा कि मैं ज्यादा ऊर्जा से काम कर सकता हूं। हम तीनों कलाकार ने तय किया था कि एकदूसरे की मूर्तियां नहीं देखेंगे। सात महीने तक हम तीनों मूर्तिकार साथ थे। साथ रहते थे, साथ में खाना खाते थे। अलग-अलग विषय पर बात करते थे, लेकिन मूर्ति के बारे में बात नहीं करते थे। यह अनुशासन हमने रखा। हमने अच्छी भावना से यह सब किया। हमारा यह मानना नहीं था कि हमारी ही मूर्ति चुनी जाए। हम यह सोचते थे कि देश को अच्छी मूर्ति मिलनी चाहिए। हमने आखिरी दिन ही एकदूसरे की मूर्तियों को देखा।

जिस दिन मूर्ति का चयन होना था, उस दिन आपके मन में क्या भाव चल रहे थे?
अरुण योगीराज: 10 दिसंबर को मैं मैसूर चला गया था, फिर 22 दिसंबर को अयोध्या लौट आया। वहां सारे ट्रस्टी आने वाले थे। मूर्ति के ऊपर मैंने पीला वस्त्र डाल रखा था। मैं ट्रस्ट के सदस्यों को हिंदी में अपनी विचार प्रक्रिया बता रहा था। मेरा पहले दिन से उद्देश्य यह नहीं था कि ट्रस्ट मेरी बनाई मूर्ति को स्वीकार करे। मेरा उद्देश्य था कि देश के गरीब लोग, युवाओं के माता-पिता जब मूर्ति को देखें तो प्रसन्न रहें। मैंने एक किताब में यह लिखकर रखा था। हर दिन मैं हजार तस्वीरों से ज्यादा देखकर सोता था। प्रभामंडल को जब डिजाइन किया तो उसमें दशावतार थे। भक्त भाग में हनुमान और गरुड़ देव थे। एक-एक इंच के लिए हमने संदर्भ जुटा रखे थे। मेरी हिंदी अच्छी नहीं है तो शायद ट्रस्टी ठीक से नहीं समझ पाए। उसी क्षण मूर्ति पर रखा पीला वस्त्र नीचे आ गया और सभी ट्रस्टी के हाथ (प्रणाम की मुद्रा में) अपने आप उठ गए। वह क्षण मुझे हमेशा याद रहेगा।

अमर उजाला के पाठकों ने आपसे सबसे ज्यादा सवाल रामलला की नई मूर्ति के नेत्रों को लेकर किए हैं। इन दिव्य चक्षुओं को इतने मोहक तरीके से कैसे गढ़ा गया?
अरुण योगीराज: मूर्ति अलंकारों में छुप गई थी। ऐसे में मुझे पता था कि नेत्रों पर पूरे देश की नजर रहेगी। हमें एक मुहूर्त दिया गया था। नेत्रोन्मिलन करने से पहले हमें सरयू नदी में स्नान करके, हनुमानगढ़ी और कनक भवन में पूजा करके नेत्र उकेरने के लिए 20 ही मिनट का समय दिया गया था। शिला पर जब काम करते हैं तो आपके पास एक ही मौका होता है। मैंने भगवान का ही स्मरण किया कि आप ही आदेश दीजिए कि कैसे बनाना है। शिल्प शास्त्र में जैसा कहा गया है, उसी तर्ज पर मैंने पहले ही उन 20 मिनटों के लिए चांदी का हथौड़ा और सोने की छेनी बनवाकर रखी थी। शिल्प शास्त्र एक ज्यामितीय माप देता है। हम उसे उत्तम पंचकाल और 64 अंगुल कहते हैं। उस ज्यामितीय माप के अंदर जीवंतता लेकर आना हमारे लिए चुनौतीपूर्ण है। मैं शिला से बात करता था। भगवान को याद करता था कि आपको दर्शन देने ही होंगे। सितंबर के पहले हफ्ते में मैंने काम शुरू किया और दो दिसंबर को खत्म किया। तीनों मूर्तिकारों में मेरा ही काम सबसे पहले खत्म हुआ। मेरे पास सात दिन थे। सातों दिन मैं मूर्ति के सामने बैठा रहता था और मन में पूछता था कि भगवान कुछ और सुधार हो तो बताइए। मैंने जिंदगी में पत्थरों के साथ बहुत वक्त बिताया है। अब मैं भरोसे से कह सकता हूं कि पत्थर मेरी बात सुनते हैं। मैं हर बार यही कहता हूं कि यह मूर्ति मैंने नहीं बनाई, भगवान ने मुझसे बनवाई है। मेरे जैसे हजारों कलाकार काम कर रहे हैं। मैं यही सोचता था कि मेरे जरिए अगर उन सभी को सम्मान मिलता है और देश को अच्छे रामलला मिले तो कितनी अच्छी बात होगी।

नेत्रों के लिए 20 मिनट ही क्यों मिले?
अरुण योगीराज: इसके लिए मुहूर्त निकाला गया था। जब मेरी मूर्ति चुन ली गई, तब चंपत जी ने मुझे फोन किया कि अभी मैसूर लौटने की तैयारी मत करो। यहीं रुको। बाद में बताया गया कि वस्त्रकार और अलंकार बनाने वाले आ रहे हैं, उनके साथ समन्व्य कीजिए। मुझे अंदर से एहसास होने लगा कि मेरी मूर्ति चुन ली गई है। मूर्ति चुने जाने के बाद नेत्रों के लिए 20 मिनट का वक्त मिला। मेरे अंदर बाद में डर बैठ गया। मूर्ति बनाने के दौरान शिला पर मशीन, छेनी-हथौड़ी चलाया गया था। बाद में जब मूर्ति बन गई तो उसे छूने से मुझे भी डरने लगा था, क्योंकि अब वो महज एक मूर्ति नहीं रह गई थी। यह सोचने लगा कि मूर्ति को कैसे गर्भगृह के अंदर लेकर जाएंगे। दो जनवरी को मुझे यह पता चल गया था कि मेरी बनाई मूर्ति की ही प्राण प्रतिष्ठा होनी है। जब आभूषण बनाने वाले माप लेने आए, तब मैं आश्वस्त हो गया।

जब यह पता चल गया कि आपकी ही मूर्ति चुनी गई है तो मन में क्या भाव आए?
अरुण योगीराज: फिर यही सोचने लगा कि देश इसे कैसे स्वीकार करेगा। प्राण प्रतिष्ठा 22 जनवरी को हुई। उस दिन भी मैं शाम को लोगों से जा-जाकर पूछता रहा कि मूर्ति आपको कैसी लगी? सभी से अच्छी प्रतिक्रिया मिला। अगले दिन यानी 23 जनवरी को करीब सात महीने बाद मैं अच्छे से सो सका।

मूर्ति की तस्वीर पहले ही वायरल हो गई। उसके पीछे की कहानी क्या थी?
अरुण योगीराज: मूर्ति जब चुनी गई तो यह चुनौती थी कि उसे गर्भगृह के अंदर ठीक से कैसे रखेंगे। एल एंड टी के इंजीनियरों ने मूर्ति को ठीक से अंदर पहुंचा दिया। उस दिन मेरा तनाव कम हुआ। दो घंटे बाद फोटो वायरल हो गई। मुझे फिर तनाव हो गया। मैंने अपनी पत्नी को भी सात महीने में कोई फोटो नहीं भेजी थी। एक महीने में कई लोग वहां आने लगे थे। शायद उस वक्त कुछ गलती हो गई। मैं और चंपतजी बहुत विचलित हो गए। मैं दो दिन कमरे में रोता रहा कि मेरे साथ ऐसा क्यों हो गया। शिला शुद्धिकरण और प्राण प्रतिष्ठा के बाद मूर्ति अलग ही हो जाती है। मैंने महसूस किया कि जो मूर्ति बनाई थी, वो बाद में अलग दिखने लगी। उस जगह का महत्व है। अच्छी तरह से प्राण प्रतिष्ठा हुई। देश को दर्शन मिले तो हम सब भूल गए कि पहले क्या हुआ था।

मूर्ति की डिजाइन की प्रेरणा कहां से मिली?
अरुण योगीराज: मूर्ति के पीछे के हिस्से जो आर्च बनता है, उसे दक्षिण भारत में प्रभामणि कहते हैं। यह अलंकार के लिए बनाया जाता है। मैंने पहले ही सोचा था कि विष्णु संप्रदाय के मुताबिक दशावतार होगा। एक स्थान ब्रह्मा और शिव को देंगे। श्रीराम सूर्यवंशी हैं तो ऊपर सूर्य बनाया। भक्त भाग में हमने हनुमान और गरुड़ देव को बनाया। इसके लिए मैंने कागज पर रेखाचित्र बनाकर ट्रस्ट के सामने रखा था। उन्होंने उस पर हामी भरी।

आपके परिवार में कौन-कौन हैं?
अरुण योगीराज: पत्नी विजेता, बेटी सान्वी और बेटा वेदांत है। पत्नी ने मुझे काफी आधार दिया। मैं ज्यादा वक्त पत्थरों के साथ बिताता हूं। बच्चों या परिवार को बहुत कम समय दे पाता हूं। मां सरस्वती, भाई सूर्यप्रकाश, बहन चेतना और चचेरा भाई यशवंत मेरे साथ ही रहते हैं। हमारा परिवार तीन सौ साल से यह काम कर रहा है। भगवान ने हमें प्रसाद दे दिया। अभी आगे की दस पीढ़ी यही काम करना चाहते हैं। बच्चों की इच्छा होगी तो सिखाने के लिए हम मौजूद हैं। बेटा अभी दो साल का है। आठ साल की बेटी की दिलचस्पी मूर्तिकला में जागने लगी है।

एमबीए कर रहे थे, तब क्या विचार आ रहे थे?
अरुण योगीराज: पढ़ाई के बाद पिताजी बीएस योगीराज शिल्पी के साथ काम करता था। मैनेजमेंट प्रशिक्षु के तौर पर एक बार दो महीने के लिए काम के सिलसिले में बाहर गया। जब लौटा, तब लगा कि मुझे यही करना है। पिताजी ने कहा कि यह सेल्स और मार्केटिंग का काम नहीं है। खुद बैठकर यह काम करना है तो करो। यह काम ऐसा नहीं है कि किसी और से करवाया जाए। उन्हें शायद लग रहा था कि एमबीए करके मैं मूर्तिकला को कारोबार के तौर पर न मान बैठूं। पिताजी से जीवन में मुझे बस प्रोत्साहन चाहिए था। पिताजी ने पहले कभी मेरी तारीफ नहीं की थी। 20 साल से मैं उनकी शाबाशी चाहता था। केदारनाथ में जब मैंने शंकराचार्यजी की मूर्ति बनाई थी, तब उन्होंने फोन पर रोते हुए मुझे कहा कि तुमने मेरे पिता का नाम आज रोशन कर दिया है। वह सबसे बड़ा प्रोत्साहन था। शाबाशी देने के एक महीने बाद पिताजी बीएस योगीराज शिल्पी गुजर गए। मूर्ति पूरी होने के बाद मुझे लगा कि काश आज पिता होते तो देखते और खुश होते। मैं यही मानता हूं कि वे ऊपर से मुझे आशीर्वाद दे रहे हैं।

कौन सा ऐसा क्षण था जो आपको याद रहेगा?
अरुण योगीराज: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी जब देश को मूर्ति समर्पित कर रहे थे, तब मैं लोगों के साथ बाहर ही था। मैं बाहर ही रहना चाहता था। मैं लोगों की प्रतिक्रिया देखना चाहता था। सबके भावुक चेहरे देखकर मुझे खुशी हुई। वह पल मैं कभी नहीं भूल सकता।

लोकप्रियता को कैसे संभाल रहे हैं?
अरुण योगीराज: मुझे लोगों से प्यार मिल रहा है। एक पत्थर, हथौड़ी और छेनी के साथ 130 करोड़ से ज्यादा लोगों का दिल जीत सकता हूं, यह मेरे लिए नया अनुभव रहा। इस वक्त मैं यही सोच रहा हूं कि इस कला में आगे और क्या कर सकता हूं।

खाली समय में आप क्या करते हैं?
अरुण योगीराज: मैं बच्चों के साथ वक्त बिताता हूं। उनके साथ खेलता हूं। फिल्में बहुत कम देखता हूं। टीवी भी बहुत कम देखता हूं। पुराने गाने सुनता हूं। हालांकि पत्नी कहती है कि आप बहुत बोरिंग हो, ड्रॉइंग बनाते रहते हैं। गदर-2 मैंने अयोध्या में देखी। काम खत्म करके रात 10 बजे का शो देखा था। बाइक पर बैठकर फिल्म देखने गया था। 

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