सार
लोकसभा से लेकर स्थानीय निकायों तक सभी चुनावों पर लगभग 10 लाख करोड़ रुपये का खर्च आता है, जिसे मतदान की अवधि घटाकर 3 से 5 लाख करोड़ रुपये तक कम किया जा सकता है। राव के अनुसार, जहां 2024 में लोकसभा चुनाव पर 1.20 लाख करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है, वहीं सभी विधानसभा चुनाव एक साथ होने पर 3 लाख करोड़ रुपये खर्च हो सकते हैं
विस्तार
जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने 1999 में अपनी 117 वीं रिपोर्ट में तथा विभिन्न संसदीय समितियों ने देश में एक साथ चुनाव कराने की सिफारिशें की थी। लेकिन सवाल उठता है कि क्या इस विचार को धरातल पर उतारना आज की परिस्थिति में इतना आसान है?
एक साथ चुनाव को लेकर आशंकाएं
यह सही है कि वर्ष 1951-52, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए। लेकिन आज परिस्थितियां बिल्कुल वैसी नहीं हैं। एक साथ चुनाव की व्यवहार्यता पर सवाल उठ रहे हैं कि यदि एक साथ चुनाव होते हैं तो पहले चुनाव में उन विधानसभाओं का क्या होगा जिनका निर्धारित कार्यकाल या तो चुनाव कराने की प्रस्तावित तिथि से पहले या बाद में समाप्त होता है।
यह भी सवाल है कि क्या लोकसभा और विधानसभाओं का कार्यकाल तय होना चाहिए? यदि कार्यकाल के बीच में उपचुनाव की आवश्यकता पड़ी तो क्या होगा? यदि सत्तारूढ़ दल या गठबंधन लोकसभा या विधानसभाओं में कार्यकाल के बीच बहुमत खो देता है तो क्या होगा? चूंकि परिस्थितियां बदलती रहती हैं और एक धारणा को पकड़कर बैठे रहने से जड़ता आती है, इसलिए नई सभावनाओं की तलाश के रास्ते सदैव खुले रहने ही चाहिए।
प्रख्यात शोधकर्ता एवं विश्लेषक डॉ. एन. भास्कर राव का एक अध्ययन के अनुसार-
लोकसभा से लेकर स्थानीय निकायों तक सभी चुनावों पर लगभग 10 लाख करोड़ रुपये का खर्च आता है, जिसे मतदान की अवधि घटाकर 3 से 5 लाख करोड़ रुपये तक कम किया जा सकता है। राव के अनुसार, जहां 2024 में लोकसभा चुनाव पर 1.20 लाख करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है, वहीं सभी विधानसभा चुनाव एक साथ होने पर 3 लाख करोड़ रुपये खर्च हो सकते हैं।
देश में कुल लगभग 4,500 विधानसभा सीटें हैं। लोकसभा में 29 अगस्त 2011 को सरकार की ओर से बताया गया था कि 2009 के लोकसभा चुनाव में कुल 11135,45,000 रुपये खर्च हुए थे। चुनावों पर घोषित से कहीं अधिक अघोषित धन खर्च होता है जिसका कहीं हिसाब नहीं होता और यही असली भष्टाचार की गंगोत्री होती है।
जाहिर है जिस तरह से आंकड़ेे हैं एक साथ चुनाव से धन की बचत हो सकती है, क्योंकि सुरक्षा, रसद और प्रशासन से संबंधित खर्च कम हो जाएंगे।
एक साथ चुनाव के पक्ष में यह भी तर्क है कि बार-बार चुनाव सरकारी मशीनरी के सामान्य कामकाज को बाधित करते हैं। एक साथ चुनाव शासन के लिए अधिक स्थिर वातावरण प्रदान करते हैं, जिससे निर्वाचित प्रतिनिधियों को लगातार चुनाव प्रचार की स्थिति में रहने के बजाय अपने कर्तव्यों पर ध्यान केंद्रित करने का अवसर मिलता है।
इससे मतदाताओं में अधिक उत्साह हो सकता है क्योंकि उन्हें कई बार के बजाय कुछ वर्षों में केवल एक बार चुनाव में जाने की आवश्यकता होगी। इससे चुनाव प्रचार की अवधि कम हो सकती है, जो भारत में काफी लंबी होती है।
ऐसा भी मत है कि चुनावों में धन और बाहुबल के प्रभाव को सीमित किया जा सकता है। तर्क यह भी है कि इससे बेहतर नीति निरंतरता और दीर्घकालिक योजना की संभावना है, क्योंकि सरकारों के पास अधिक स्थिर कार्यकाल होंगे। बार-बार चुनावों के कारण चुनाव वाले राज्य या चुनाव वाले क्षेत्र में आदर्श आचार संहिता लागू हो जाती है जिस कारण सरकारों के संपूर्ण विकास कार्यक्रम और गतिविधियां रुक जाती हैं।