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One Nation One Election: कितना व्यवहारिक है एक राष्ट्र एक चुनाव का विचार?

 सार

लोकसभा से लेकर स्थानीय निकायों तक सभी चुनावों पर लगभग 10 लाख करोड़ रुपये का खर्च आता है, जिसे मतदान की अवधि घटाकर 3 से 5 लाख करोड़ रुपये तक कम किया जा सकता है। राव के अनुसार, जहां 2024 में लोकसभा चुनाव पर 1.20 लाख करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है, वहीं सभी विधानसभा चुनाव एक साथ होने पर 3 लाख करोड़ रुपये खर्च हो सकते हैं




विस्तार

एक राष्ट्र एक चुनाव’’ की संभावनाओं और तौर तरीकों पर विचार के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द की अध्यक्षता वाली उच्च स्तरीय समिति सक्रीय रही है। समिति समाज के विभिन्न वर्गों, संविधान और कानून विशेषज्ञों, निर्वाचन आयोग तथा शासन प्रशासन में बैठे लोगों के साथ ही असली स्टेक हाल्डर्स राजनीतिक दलों से निरन्तर विमर्श कर रही है

इस विचार के समर्थकों और विरोधियों के अपने-अपने तर्क हैैं। इस संदर्भ में 1951-52 में हुए भारत के पहले आम चुनाव का उदाहरण भी देश के समक्ष है जिसमें न केवल लोकसभा बल्कि राज्य की विधानसभाओं, विधान परिषदों, राज्यसभा और यहां तक कि उसी दौरान राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति के चुनाव भी सम्पन्न कराए गए थे।

 

जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने 1999 में अपनी 117 वीं रिपोर्ट में तथा विभिन्न संसदीय समितियों ने देश में एक साथ चुनाव कराने की सिफारिशें की थी। लेकिन सवाल उठता है कि क्या इस विचार को धरातल पर उतारना आज की परिस्थिति में इतना आसान है? 


एक साथ चुनाव को लेकर आशंकाएं 

यह सही है कि वर्ष 1951-52, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए। लेकिन आज परिस्थितियां बिल्कुल वैसी नहीं हैं। एक साथ चुनाव की व्यवहार्यता पर सवाल उठ रहे हैं कि यदि एक साथ चुनाव होते हैं तो पहले चुनाव में उन विधानसभाओं का क्या होगा जिनका निर्धारित कार्यकाल या तो चुनाव कराने की प्रस्तावित तिथि से पहले या बाद में समाप्त होता है।


यह भी सवाल है कि क्या लोकसभा और विधानसभाओं का कार्यकाल तय होना चाहिए? यदि कार्यकाल के बीच में उपचुनाव की आवश्यकता पड़ी तो क्या होगा? यदि सत्तारूढ़ दल या गठबंधन लोकसभा या विधानसभाओं में कार्यकाल के बीच बहुमत खो देता है तो क्या होगा?  चूंकि परिस्थितियां बदलती रहती हैं और एक धारणा को पकड़कर बैठे रहने से जड़ता आती है, इसलिए नई सभावनाओं की तलाश के रास्ते सदैव खुले रहने ही चाहिए।
 

प्रख्यात शोधकर्ता एवं विश्लेषक डॉ. एन. भास्कर राव का एक अध्ययन के अनुसार-

लोकसभा से लेकर स्थानीय निकायों तक सभी चुनावों पर लगभग 10 लाख करोड़ रुपये का खर्च आता है, जिसे मतदान की अवधि घटाकर 3 से 5 लाख करोड़ रुपये तक कम किया जा सकता है। राव के अनुसार, जहां 2024 में लोकसभा चुनाव पर 1.20 लाख करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है, वहीं सभी विधानसभा चुनाव एक साथ होने पर 3 लाख करोड़ रुपये खर्च हो सकते हैं।

देश में कुल लगभग 4,500 विधानसभा सीटें हैं। लोकसभा में 29 अगस्त 2011 को सरकार की ओर से बताया गया था कि 2009 के लोकसभा चुनाव में कुल 11135,45,000 रुपये खर्च हुए थे। चुनावों पर घोषित से कहीं अधिक अघोषित धन खर्च होता है जिसका कहीं हिसाब नहीं होता और यही असली भष्टाचार की गंगोत्री होती है।

जाहिर है जिस तरह से आंकड़ेे हैं एक साथ चुनाव से धन की बचत हो सकती है, क्योंकि सुरक्षा, रसद और प्रशासन से संबंधित खर्च कम हो जाएंगे।

एक साथ चुनाव के पक्ष में यह भी तर्क है कि बार-बार चुनाव सरकारी मशीनरी के सामान्य कामकाज को बाधित करते हैं। एक साथ चुनाव शासन के लिए अधिक स्थिर वातावरण प्रदान करते हैं, जिससे निर्वाचित प्रतिनिधियों को लगातार चुनाव प्रचार की स्थिति में रहने के बजाय अपने कर्तव्यों पर ध्यान केंद्रित करने का अवसर मिलता है।

इससे मतदाताओं में अधिक उत्साह हो सकता है क्योंकि उन्हें कई बार के बजाय कुछ वर्षों में केवल एक बार चुनाव में जाने की आवश्यकता होगी। इससे चुनाव प्रचार की अवधि कम हो सकती है, जो भारत में काफी लंबी होती है।

ऐसा भी मत है कि चुनावों में धन और बाहुबल के प्रभाव को सीमित किया जा सकता है। तर्क यह भी है कि इससे बेहतर नीति निरंतरता और दीर्घकालिक योजना की संभावना है, क्योंकि सरकारों के पास अधिक स्थिर कार्यकाल होंगे। बार-बार चुनावों के कारण चुनाव वाले राज्य या चुनाव वाले क्षेत्र में आदर्श आचार संहिता लागू हो जाती है जिस कारण सरकारों के संपूर्ण विकास कार्यक्रम और गतिविधियां रुक जाती हैं।  


 

ईवीएम पर ही खर्च होंगे हजारों करोड़ 

राष्ट्रव्यापी चर्चाओं के बावजूद 1967 के बाद पटरी से उतरी हुई एक साथ चुनाव की गाड़ी पुनः पटरी पर नहीं लौट सकी। स्वयं भारत निर्वाचन आयोग ने महसूस किया कि एक साथ चुनाव कराने के लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों और वोटर वेरिफिएबल पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपीएटी) मशीनों की बड़े पैमाने पर खरीद की आवश्यकता होगी।
 
एक साथ चुनाव कराने के लिए आयोग को उम्मीद है कि ईवीएम और वीवीपैट की खरीद के लिए आज की दर पर कुल 9284.15 करोड़ रुपये की जरूरत होगी। मशीनों को हर पंद्रह साल में बदलने की भी आवश्यकता होगी जिस पर फिर से व्यय करना होगा। इसके अलावा, इन मशीनों की भंडारण लागत में वृद्धि होगी।  


सबसे बड़ी अड़चन संवैधानिक प्रावधान  

देेखा जाए तो एक साथ चुनाव लागू करने के लिए सबसे बड़ी अड़चन संवैधानिक है जिसमें लोकसभा और विधानसभाओं का निर्धारित कार्यकाल सबसे बड़ा बाधक है, इसलिए सबसे पहले मौजूदा प्रावधानों में महत्वपूर्ण बदलाव की आवश्यकता होगी। एक साथ चुनाव के लिए विधानसभाओं के कार्यकाल लोकसभा के र्काकाल के अनुरूप बनाने होंगे और इसके लिए किसी का कार्यकाल घटाना और किसी का बढ़ाना पड़ सकता है जो कि संविधान संशोधन के बिना संभव नहीं है।

आम चुनावों के दौरान भारत की चुनावी मशीनरी पर भारी बोझ पड़ सकता है। इसके लिए सुरक्षा व्यवस्था, मतदान केंद्र, इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन और कर्मियों सहित बड़े पैमाने पर प्रयास की आवश्यकता होगी। राष्ट्रीय स्तर पर इसका समन्वय करना भी एक कठिन कार्य है। 

गौण हो जाएंगे क्षेत्रीय मुद्दे 

भारत एक विविधतापूर्ण देश है, जिसके विभिन्न राज्यों और क्षेत्रों में विशिष्ट सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक  परिस्थितियां हैं। एक साथ चुनाव कराने में या तो राष्ट्रीय मुद्दे और या फिर क्षेत्रीय मुद्दे गौण हो जाएंगे। क्षेत्रीय दलों का जन्म ही विकास की क्षेत्रीय आवश्यकताओं और क्षेत्रीय अस्मिता के लिए होता है, इसलिये क्षेत्रीय दलों को चुनावों में प्रभावी ढंग से प्रतिस्पर्धा करना मुश्किल हो सकता है।

एक आशंका यह भी है कि एक साथ चुनाव सत्ता को केंद्रीकृत कर सकते हैं और भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के संघीय ढांचे को कमजोर कर सकते हैं, क्योंकि चुनाव कब कराने हैं, यह केन्द्र सरकार पर निर्भर करेगा। 


विधायिका का नया कार्यकाल तय करना होगा  

एक साथ चुनाव के विचार को साकार करने के लिए भारत निर्वाचन आयोग ने भी विभिन्न घटनाओं को ध्यान में रखते हुए उपाय सुझाए थे कि लोकसभा का कार्यकाल आम तौर पर एक विशेष तारीख को शुरू और समाप्त होता है (न कि उस तारीख को जब वह अपनी पहली बैठक की तारीख से पांच साल पूरे करती है) इसलिए सभी राज्य विधान सभाओं का कार्यकाल भी सामान्यतः उसी दिन समाप्त होना चाहिए जिस दिन लोकसभा का कार्यकाल समाप्त हो रहा हो। इसके लिए मौजूदा विधान सभाओं का कार्यकाल या तो पांच साल से अधिक बढ़ाना होगा या कम करना होगा ताकि लोकसभा चुनाव के साथ-साथ नए चुनाव भी कराए जा सकें।  

पहले आम चुनाव की नजीर देश के सामने-

सम्पूर्ण भरत में एक साथ चुनाव कराने का सबसे ज्वलंत उदाहरण वर्ष 1951-52 में हुए पहले आम चुनाव का है। उस समय नवजात राष्ट्र के पास न तो इतने संसाधन थे, न तर्जुबा था और ना ही देश में आज का जैसा इन्फ्रास्ट्रक्चर था।

संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत 25 जनवरी 1950 को भारत निर्वाचन आयोग की स्थापना हुई थी और 21 मार्च 1950 को सुकुमार सेन को पहला मुख्य निर्वाचन आयुक्त नियुक्त करते हुए उन्हें नवजात और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के चुनाव कराने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी।

अब तो केवल लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की बात हो रही है। लेकिन पहले आम चुनाव में लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभाओं, विधान परिषदों के चुनाव एक साथ हुए थे। उसके तत्काल बाद राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति के चुनाव हुए थे।

पहले आम चुनाव के समय लोकसभा की 496 सीटें थीं जिनमें से जम्मू-कश्मीर और अंडमान निकोबार से सदस्यों का मनोनयन और बाकी के चुनाव होने थे। इनके अलावा राज्यसभा की 204 सीटों में 12 पर मनोनयन और 190 का तीनों श्रेणियों के राज्यों से समानुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर चुनाव होना था।

उस समय 28 में से केवल 7 राज्यों में विधान परिषदें थीं जिनमें कुछ सदस्यों का मनोनयन होना था जबकि एक तिहाई का जिला परिषद, नगर पालिका और नगर निगम के निर्वाचक मंडल द्वारा, एक तिहाई राज्य की विधानसभाओं द्वारा और कुछ का चयन ग्रेजुएट और शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र से होना था।

उस समय न ऐसी सड़कें थीं और ना ही संचार के ऐसे संसाधन थे। कुछ सुदूर क्षेत्रों में संचार के लिये वायरलेस सेट लगाये गये थे और डाक एवं तार व्यवस्था पर बहुत निर्भरता थी। बावजूद इन चुनौतियों के बावजूद नवजात राष्ट्र ने विश्व की सबसे बड़ी चुनावी प्रकृया को बखूबी सम्पन्न कराया। 
 

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।

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